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विश्व को बुद्धत्व से रूबरू कराएगा साँची विश्वविद्यालय, नए कैंपस में बनाया जाएगा विपश्यना केंद्र

साँची । मौर्य सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी में इक्ष्वाकु वंशीय राजघराने के राजकुमार सिद्धार्थ गौतम के नश्वर अवशेषों के पुनर्वितरण के उद्देश्य से साँची में स्तूप की स्थापना की थी। जिसके बाद सांची भारत की बौद्ध साधना, स्थापत्य प्रतिभा और धार्मिक विरासत का प्रमुख केंद्र बन गया। बौद्ध साधना की ये धरती जल्द ही भगवान बुद्ध की साधना परंपरा को विश्व से रूबरू कराएगी। यहां बौद्ध धर्म की प्रमुख साधना पद्धति विपश्यना सिखाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर का केंद्र विकसित किया जा रहा है।

साँची विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय स्तर का विपश्यना केंद्र का निर्माण कार्य जरी है। बता दें कि सिद्धार्थ गौतम ने राजपाट और परिवार छोड़ने के बाद ज्ञान प्राप्त करने के लिए योग साधना की जो प्रक्रिया अपनाई थी उसे विपश्यना कहते हैं।

पाली भाषा के शब्द विपासना का अर्थ होता है पीछे देखना या अंतः के दर्शन करना। बौद्ध धर्म के अनुयायी ही नहीं, यह ध्यान पद्धति आध्यात्मिक रुचि रखने वाले लगभग हर धर्म के मतावलंबी भी अपनाते हैं। अशोक ने तीसरी सदी ईसा पूर्व में साँची स्तूप को बौद्ध अध्ययन और शिक्षा केंद्र के तौर पर बनवाया था तब से ही साँची अंतरराष्ट्रीय पर्यटन और बौद्ध पयर्टकों की आस्था का केंद्र है।

महात्मा बुद्ध की शिक्षा, अष्टांग मार्ग, निर्वाण, पंचशील आदि की शिक्षा देने के उद्धेश्य से साँची बौद्ध विश्वविद्यालय द्वारा नए निर्माणाधीन कैंपस में अंतरराष्ट्रीय स्तर का विपश्यना केंद्र खोले जाने की तैयारी है। विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो. अलकेश चतुर्वेदी ने बताया कि साँची को अंतरराष्ट्रीय पर्यटन और महात्मा बुद्ध की शिक्षा के केंद्र के रूप में विकसित करने के लिए विश्वविद्यालय के नए कैंपस में यह केंद्र तैयार किया जा रहा है। जल्द ही यह बनकर तैयार हो जायेगा।

क्या है विपश्यना

विपश्यना साधना के जरिए चित्त की शुद्धि की जाती है। विपश्यना करने वाले व्यक्ति में राग, द्वेष, भय, मोह, अहंकार, लालच आदि विकार धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं। वह शारीरिक-मानसिक बंधनों से मुक्ति हो जाता है। विपश्यना के तीन चरण होते हैं। पहले चरण में साधक को त्रिशरण व पंचशील का पालन करना पड़ता है।

जीव हिंसा और चोरी से विरत रहना, व्यभिचार से दूर रहना, असत्य बोलने और मादक पदार्थों के सेवन से परहेज करना होता है। दूसरा चरण आनापान है। शब्द आन-अपान का अर्थ सांस के अंदर आने और बाहर निकलना है। इस चरण में साधक सांस पर एकाग्र होकर मन को स्थिर करना सीखता है।

सांस के आने-जाने को अपने ही अनुभव से नासिका के दोनों द्वारों पर देखना सिखाया जाता है। तीसरे चरण में साधक विपश्यना में पारंगत होता है। इस चरण में साधक की प्रज्ञा जागृत होती है और उसे नित्य-अनित्य का बोध होने लगता है। साधक को देखते अंतः की वेदना-संवेदनाए वास्तविक स्वभाव में स्पष्ट होने लगती हैं।

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